Faridabad NCR
नदियों व सागर में मिलने वाले पत्थरीले टुकड़ों को बिना तरासे देते हैं आकृति का रूप
Faridabad Hindustanabtak.com/Dinesh Bhardwaj :14 फरवरी। 37वें अंतरराष्टï्रीय सूरजकुंड मेले में देश के कोने-कोने से आए शिल्पकार अपनी अनोखी कलाकृतियों से दर्शकों का ध्यान आकर्षित कर रहे हैं। ऐसे सामान जिन्हें आमजन मानस व्यर्थ समझकर कोई तवज्जो नहीं देते, शिल्पकार उसे अपने हुनर से जीवंत कर अपने अर्जन का माध्यम बनाकर लाखों कमा रहे हैं। महाराष्टï्र के परभनी जिला से आए शिल्पकार भगवान पंवार और उनके पुत्र प्रहलाद पंवार इन्हीं में एक हैं।
यह शिल्पकार पंचम सदी की प्रचलित कंकड़ कला को अपने हुनर के माध्यम से देश के कोने कोने में पहुंचाकर उसे पहचान दिला रहे हैं। कंकड़ कला को को पेबल आर्ट के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन काल में पत्थरों को तराशे बगैर ही विभिन्न प्रकार की मूर्तियां बनाई जाती थी। यह कला अब देश में लगभग लुप्त हो चुकी है, लेकिन यह दोनों पिता-पुत्र अपने परिवार सहित पुन: इस कला को जीवंत बनाने में लगे हुए हैं।
अलग-अलग राज्यों की नदियों से इक्_ïा करते हैं पत्थर
शिल्पकार प्रहलाद पंवार ने जानकारी देते हुए बताया कि पेबल आर्ट (कंकड़ कला) पंचम सदी की कला मानी जाती है। उस समय में पत्थरों को तरासने आदि की सुविधा नहीं थी। राजा महाराजा अपने शिल्पकारों से पत्थरों की अलग-अलग प्रकार की आकृतियां सजावट के लिए बनवाते थे। उन्होंने बताया कि वह देश के विभिन्न हिस्सों में प्रवाहित नदियों और सागर के किनारे जाकर वहां से छोटे-छोटे पत्थरीले टुकड़ों को इक्_ïा करते हैं। इसके पश्चात वह एक थीम सोचकर पत्थरों को बगैर तोड़े और तरासे ही आकृतियों का रूप देते हैं। नदियों से निकलने वाले कंकड़-पत्थरों को जोडक़र बनाई गई कलाकृतियां ही पेबल आर्ट (कंकड़ कला) कहलाती है।
कंकड़-पत्थरों के प्राकृतिक स्वरूप से तैयार की जाती हैं आकृतियां
बीएससी हार्टिकल्चर से पढ़ाई करने वाले शिल्पकार प्रहलाद पंवार ने बताया कि पहले वह इस कला को शौकिया किया करते थे। महाराष्ट राज्य के जिला परभनी में स्थित गांव वजूर के पास से गोदावरी नदी से वह कंकड़ बीनकर लाते थे और घर में बैठकर गोंद के माध्यम उसे विभिन्न स्वरूपों में जोडक़र आकृतियां बनाते थे। इस कला से बनाई आकृतियों की मांग बढऩे पर उन्होंने अपनी मां रूकमणी पंवार और धर्मपत्नी मोहिनी को भी इसी शिल्पकला से जोडक़र परिवार की आमदनी का माध्यम बना लिया। अब वह अपने आस-पास की एक दर्जन से अधिक महिलाओं को इस कला से जोडक़र आत्मनिर्भर बना चुके हैं। खास बात यह है कि कंकड़ कला में उपयोग किए जाने वाले पत्थरों को न तो तरासा जाता है और न ही उनकी तोडफ़ोड़ की जाती है। कंकड़-पत्थरों के प्राकृतिक स्वरूप से आकृतियां तैयार की जाती है। यह आकृतियां सजावट और उपहार देने में काम आती हैं।
रामायण के पात्रों की थीम पर आकृति बनाने में जुटे
शिल्पकार प्रहलाद ने बताया कि उनके द्वारा कंकड़ कला से बनाई गई छत्रपति शिवाजी की शासन प्रणाली और महात्मा गांधी के नमक आंदोलन की आकृति सबसे अधिक चर्चित रही हैं। यह कला देश से लुप्त हो चुकी थी। उनका कहना है कि देश में वह अकेले ऐसे शिल्पकार हैं, जो पंचम सदी की कंकड़ कला को पुन: जीवंत कर रहे हैं। अब वह रामायण के पात्रों की थीम पर पत्थरों के जरिए आकृति बनाने में जुटे हुए हंै। इसी कला के माध्यम से पंवार की आमदनी 75 हजार से एक लाख रुपए तक पहुंच गई है।