Faridabad NCR
भारतीय समाज और राजनीति में महिला नेतृत्व
Faridabad Hindustanabtak.com/Dinesh Bhardwaj : आज़ाद देश को पश्चिमी विकसित देशों की तर्ज़ पर आधुनिकता की दौड़ में शामिल हुए भले ही 77 वर्ष हो चले हैं मगर अपनी पुरुष प्रधान मानसिकताओं के चलते महिलाओं के नेतृत्व के मामलें भले ही घर-परिवार के अन्दर हों या फ़िर बाहर, पश्चिमी विकसित देशों की तुलना में हम इस दौड़ में रेंगते हुए ही नज़र आते हैं ! भारतीय संविधान के अनुसार महिलाओं और पुरुषों को हर आधार पर समानता का अधिकार देने के बावजूद भी ऐसा क्यों… यह एक गंभीर प्रश्न है ! यह गंभीर प्रश्न जो आज समानतावादी दौर में हम सभी मानवतावादी लोगों के जेहन में अवश्य ही आना चाहिए, और ना केवल सवाल ही आना चाहिए अपितु इसके निवारणार्थ विचारों को भी आज भारतीय समाज में फ़ैलाने की आवश्यकता है… तभी जाकर हम संविधान की मूल भावना को साकार करने में कामयाब होंगें !
भारतीय संविधान के अनुसार आज देश में महिलाओं के लिए राजनीति में हर स्तर पर 33% आरक्षण की व्यवस्था है जिसकी बदौलत आज महिलाएं देश की छोटी से लेकर बड़ी से बड़ी पंचायतों में अहम् और जिम्मेदारी के महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं… जहाँ पर बैठकर वे अपने बुद्धि-विवेक से भारतीय समाज विशेषकर महिलाओं के हितों की सुरक्षा में अहम् संविधानिक फैंसले ले सकती हैं… मगर क्या वे आज़ाद हैं इस प्रकार के फैसलें स्वेच्छा से लेने के लिए… यह एक दूसरा गंभीर प्रश्न है ! यह गंभीर प्रश्न पुरुष प्रधान समाज की जड़ों को हिलाने की हिमाकत करता है संभवतः इसीलिए हमारा भारतीय समाज इस प्रश्न का सम्पूर्ण और स्थायी हल नही चाहता और अहम् संविधानिक पदों पर बैठी आज की भारतीय नारी मजबूर हो जाती है एक रबर स्टैम्प की तरह, पुरुष के हाथों अपने फैंसलों की बागडोर सौंपनें के लिए ! बातें तल्खी लिए बहुत कड़वी हैं मगर हकीकत से लबालब भरी हुई हैं और यह हम हिन्दुस्तानियों के महिला – आज़ादी के पीछे की ही गुमनाम सी हकीकतें हैं, जो हमें खुद को ही नहीं दिखाई देती हैं… ! भारतीय महिलाएं आज हवाई जहाजों से लेकर बुलेट ट्रेन चलाते हुए विश्वपटल पर आये दिन नये आयाम स्थापित करके उस पुरुष की इज्ज़त और ख्याति में चार चाँद लगा रही हैं जो अहम् फैसलों में अनमने तौर पर उसके साथ खड़ा होता है और यह पुरुष पुरजोर कोशिश करता है कि एक भी क़दम उसकी मर्ज़ी के बिना महिला द्वारा ना रखा जाये ! और यदि कोइ महिला ऐसा करने की सोचती भी है तो भावनात्मक तौर पर सवालों के बोझ तले इतना दबा दिया जाता है कि कोइ दूसरी महिला हिम्मत ही नहीं कर पाती उम्र भर अपने मन की कहने की… अपने स्वयं के फैंसले लेने की… !
भारतीय राजनीति की संसद नामक सबसे बड़ी पंचायत में 78 लोकसभा (करीब 14.36%) एवं 25 (करीब 10.00%) राज्यसभा सांसद हैं मतलब कुल 103 महिला सांसद वर्तमान लोकसभा में पहुंची हैं जोकि भारतीय संसद के इतिहास में आज तक की सबसे बड़ी संख्या तो है मगर आज भी 33% संविधानिक आरक्षण से दूर ही है… वहीं अगर देश के सभी राज्यों की महिला विधायकों की संख्या की बात करें तो यह संख्या 10.00% से भी कम ही है… इसके पीछे का मूल कारण क्या है… यह एक तीसरा गंभीर प्रश्न है… जो देश के हर उस कानून की पोल खोलता सा नज़र आता है जो महिला समानता की बात करता है !
भारतीय शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने हेतु आई.ए.एस. जैसे प्रथम श्रेणी के अधिकारियों एवं आम जन-मानस के लिए आदर्श नेतृत्व कहे जाने वाले अनेक संविधानिक पदों पर बैठी महिलाएं भी, जब स्वेच्छा से अपने निज़ी जीवन के फैंसले लेती हैं, तो पुरुषों द्वारा जाति-धर्म के नाम पर बनाई गयी नियम-कानूनों की बेड़ियों को तोड़ना भी आसन नहीं होता ! और यदि कोइ टीना डाबी जैसी बहादुर महिला इन लोक-लाज़ के आधारहीन नियम-कानूनों की बेड़ियों को तोड़कर अपना जीवन शुरू भी करती है, तो उसे भी सहना ही पड़ता है… वही दर्द जो चिरकाल से यह पुरुष-प्रधान समाज जन्मदात्री महिला को देता आया है… ! यूँ ही कोइ महिला फूलनदेवी नहीं बनती, और यूँ ही कोइ महिला इंदिरा गाँधी नहीं कहलाती… मगर जब ये महिला असमानता और अन्याय के विरुद्ध स्वेच्छा से अपने निज़ी जीवन के फैंसले लेने की हिमाकत करती हैं, तो उतार दी जाती हैं असमय ही मौत के घाट… ना जाने कितनी ही महिला प्रतिनिधि और अधिकारी आज भी एक रबर की गुडिया की तरह ही जी रही हैं अपने अन्दर… और कर रही हैं नाच पुरुष नामक मदारी के नापाक इशारों पर… जो ना तो अख़बारों की सुर्खियाँ बनती हैं और ना ही सोशल मिडिया की खबर… !
भारतीय पुरुषों का यह वर्चस्ववादी समाज यदि महिला नेतृत्व के उपरोक्त तीनों सवालों का हल चाहता है तो अपना यह वर्चस्ववाद त्याग कर हर महिला को ख़ुद की तरह इंसान समझते हुए, उसे मानव होने का आभास दिलाना होगा ताकि चिरकाल से अपने अन्दर की पीड़ा और और कसक से निकल कर वह अपने मन की स्वछ्न्द्ता से कह सके… कर सके मनमानी ! भुलाना होगा नर नारी के हर एक उस भेदभाव को जो मजबूर करता है महिला को पुरुष के इशारों पर चलने को… ! आज की नारी शिक्षित होने के साथ ही ज्ञानवान-सूझवान भी है जो अच्छे-बुरे की भलीभांति पहचान रखती है, और काबिलियत भी रखती है ‘महिला समानता’ के हर उस नारे को पहचानने की, जो उसके उद्धार के लिए पुरुषों द्वारा रचा गया है… फिर पुरुषों को उसके निर्णयों पर संदेह क्यों… ! आख़िरकार क्यों उपजते हैं ऊलजलूल शक और सवाल अपने ही जीवन की अहम् कड़ी के विरुद्ध… आख़िर क्यों… ! यदि भारतीय समाज महिला नेतृत्व को नया एवं समानतावादी आयाम देना चाहता है, तो कुछेक अपवादों को छोड़कर आज जरुरत है पुरुष मानसिकता को स्वयं की चिरकालीन सोच से ऊपर उठने की… जिसमें महिला को इंसान समझते हुए उसकी भावना और फैंसले की कदर करना हर पुरुष को घर से सिखाया जाये… तब ही महिला नेतृत्व का वह समाज तैयार होगा जिसका सपना संविधान निर्माताओं नें देखा था !
कर कदर तू हर महिला इंसान की, छोड़कर अपना अहम् !
तू ही केवल श्रेष्ठ है ‘विमल’, पुरुष मिटा ले अपना ये बहम !!