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नए क़ानूनों के ज़रिए सरकार ने किसानों को कॉरपोरेट घरानों के हवाले करने की तरफ बढ़ाया क़दम : सांसद दीपेंद्र

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Chandigarh Hindustan ab tak/Dinesh Bhardwaj : 20 सितंबर प्रदेश के इकलौते विपक्षी सांसद दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने आज के दिन को किसानों और संसद के लिए काला दिवस करार दिया है। उनका कहना है कि किसानों की आपत्तियों को नज़अंदाज़ कर, विपक्ष की आवाज़ को दबाते हुए बिना वोटिंग से राज्यसभा में किसान विरोधी काले क़ानूनों का पास होना बेहद दुर्भाग्यपूर्ण है। कोरोना संक्रमित दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने अस्पताल से एक वीडियो संदेश जारी करके इन क़ानूनों के ख़िलाफ़ विरोध ज़ाहिर किया है। सांसद ने कहा कि उन्हें इस बात की टीस है कि वो संसद के पटल पर तर्कसंगत तरीक़े से अपनी बात सरकार के कानों तक नहीं पहुंचा सके। इसलिए वो सोशल मीडिया और प्रेस नोट के माध्यम से अपना विरोध दर्ज़ करवा रहे हैं। सांसद दीपेंद्र ने कहा कि हालांकि उनकी सेहत में सुधार है लेकिन दुर्भाग्यवश आज उनकी दूसरी कोरोना रिपोर्ट पॉजिटिव आई, जिसकी वजह से वो संसद की चर्चा में प्रत्यक्ष रुप से शामिल नहीं हो पाए। लेकिन वो उम्मीद करते हैं कि लोगों की दुआ से तीसरे कृषि संबंधित विधेयक पर सदन में चर्चा से पहले वे कोरोना नेगेटिव व पूर्ण रूप से स्वस्थ होकर प्रत्यक्ष रूप से संसद में जा पाएंगे।
दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि आज पारित दो क़ानूनों से सिर्फ किसान ही नहीं बल्कि आढ़ती समेत हर उस ग़रीब आदमी को भी बड़ा नुकसान होगा, जिसे राशन कार्ड पर आटा, अनाज और दाल आदि मिलते हैं। नए क़ानून किसान पर थोपकर, न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली और मंडी व्यवस्था को कमज़ोर करने के बाद स्वाभाविक रूप से सरकार का अगला प्रहार सार्वजनिक वितरण प्रणाली पर होने जा रहा है। इस प्रणाली के तहत करोड़ों राशन कार्ड धारक ग़रीबों को लाभ मिलता है। सरकार ने इस साल सरकारी ख़रीद एजेंसी FCI का बजट कम करके इसका स्पष्ट संकेत भी दे दिया है। स्पष्ट है कि सरकार धीरे-धीरे सरकारी ख़रीद से अपने हाथ खींच रही है और फसल ख़रीद की बड़ी ज़िम्मेदारी पूंजीपतियों को सौंपने जा रही है। अगर प्राइवेट कंपनियां ही बड़ी मात्रा में किसान की फसल ख़रीदेंगी तो वो ग़रीब परिवारों को राशन कैसे और क्यों बाटेंगी? क्या ग़रीबों से “राइट टू फ़ूड” का हक़ छीन लिया जाएगा?
दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने कहा कि आज दो क़ानूनों को राज्यसभा में सरकार ने धक्केशाही से जल्दबाज़ी में पारित करवाया है। लोकतांत्रिक व्यवस्था इसकी इजाज़त नहीं देती। सरकार इन फ़ैसलों को लेकर लगातार ऐसा रवैया अपना रही है। इससे पहले इन क़ानूनों को बिना किसी से सलाह और चर्चा के चोरी छिपे कोरोना काल में अध्यादेश के ज़रिए किसानों पर थोपा गया और अब बिना वोटिंग के इन्हें पास कर दिया गया।  देश और प्रदेश के किसान मांग कर रहे थे कि सरकार अपने वादे के मुताबिक स्वामीनाथन आयोग के सी2 फार्मूले के तहत उन्हें MSP दे, लेकिन सरकार इसे विपरीत बिना MSP प्रावधान के क़ानून ले लाई। आख़िर इसके लिए किसने मांग की थी- किसानों ने या पूंजीपति घरानों ने?
सांसद दीपेंद्र ने कहा कि सरकार बार-बार दावा कर रही है कि इन क़ानूनों से MSP पर असर नहीं पड़ेगा। अगर ऐसा है तो सरकार मंडियों के बाहर होने वाली ख़रीद पर MSP की गारंटी दिलवाने से क्यों इंकार कर रही है? MSP से कम ख़रीद करने वालों के ख़िलाफ़ सज़ा का प्रावधान क्यों नहीं किया गया? नए क़ानून कहते हैं कि अब किसान पूरे देश में कहीं भी अपनी फसल बेच सकता है। वहीं दूसरी तरफ हरियाणा सरकार ‘मेरी फसल मेरा ब्यौरा’ के तहत दूसरे राज्यों की फसल को हरियाणा में आने से रोकने का नियम बनाती है। नए क़ानून आने के बाद भी हरियाणा के मुख्यमंत्री कहते हैं कि वो दूसरे राज्यों की मक्का और बजरा को हरियाणा में नहीं बिकने देंगे। आख़िर हरियाणा सरकार के स्टैंड और नए कानूनों में इतना अंतरविरोध क्यों है? अगर पूरे देश में ओपेन मार्किट सिस्टम होगा तो हरियाणा-पंजाब के अपनी धान, गेहूं, चावल, गन्ना, कपास, सरसों, बाजरा बेचने के लिए किस राज्य में जाएंगे, जहां उसे अपने राज्यों से भी ज्यादा रेट मिल पाएगा? अगर दूसरे राज्यों से सस्ती फसले हरियाणा पंजाब में आकर बिकेंगी तो हमारे किसान कहां जाएंगे?
इसी प्रकार दीपेंद्र सिंह हुड्डा ने सरकार से पूछा कि जमाखोरी पर प्रतिबंध हटाने का फ़ायदा किसको होगा- किसान को या जमाखोर को? जमाखोरी को क़ानूनी मान्यता देने बाद किसान से सस्ता लेकर जमाखोर आम उपभोक्ता को कालाबाज़ारी करके मंहगा बेचने का काम करेंगे। सरकार नए क़ानूनों के ज़रिए बिचौलियों को हटाने का दावा कर रही है, लेकिन फसल ख़रीद करने या उससे कॉन्ट्रेक्ट करने वाली प्राइवेट एजेंसी, अडानी या अंबानी को सरकार किस श्रेणी में रखती है- उत्पादक, उपभोक्ता या बिचौलिया? अगर बड़ी प्राइवेट कंपनियां किसान से ठेके पर ज़मीन लेकर बड़े स्तर कॉन्ट्रेक्ट फ़ार्मिंग करेंगी तो गांवों में ठेके या पट्टे पर ज़मीन लेकर खेती करने वाले करोड़ों छोटे किसानों का क्या होगा? सरकार जिन आढ़तियों को ख़त्म करना चाहती है वो तो किसान की पहुंच के अंदर है, लेकिन किसान अदानी-अंबानी को तक कैसे पहुंचेंगे? अगर कंपनियां किसान की फसल का भुगतान समय पर नहीं करेंगी, फसल नहीं खरीदेंगी या कोई वादाख़िलाफ़ी करेंगी तो किसान बड़े उद्योगपतियों को कहां ढूंढ़ेंगे?
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